1980 के दशक में भारत में क्षेत्रीय आकान्शाएँ एवं संघर्ष भी धीरे-धीरे बढने लगा तथा इस दशक को स्वायतता की मांग के दशक के रूप में भी जाना जाने लगा | स्वायतता की माँग के लिए हिंसक आन्दोलन भी हुए तथा सरकार द्वारा उसे दबाने का प्रयास भी किया गया | इसके कारण कई राज्यों में रजनीतिक एवं चुनावी प्रक्रिया भी अवरुद्द हुई | स्वायतता की माँग करने वाले गुटों के साथ सरकार को समय-समय पर समझौता करना पड़ा | भारत में बहुत अधिक विविधता पाई जाती है, जिसके कारण क्षेत्रीय आकान्शाएँ एवं संघर्ष भी पैदा होते है | सरकार ने इन विविधताओं पर लोकतान्त्रिक दृष्टिकोण अपनाया है | भारत में अलग-अलग क्षेत्रों एवं दृष्टिकोण को प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए अलग-अलग रजनीतिक दल पाए जाते हैं | भारत सरकार भी नीति मिर्माण की प्रक्रिया में क्षेत्रीय मुद्दों एवं समस्याओं को समुचित महत्व देती है, परन्तु फिर भी भारत के तनाव एवं संघर्ष पाया जाता रहा है तथा इस तनाव के दायरे अलग-अलग हैं, जैसे- भाषा, क्षेत्रवाद, पूर्वोतर की समस्याएं, नक्सलवादी गतिविधियाँ, दक्षिण राज्यों का हिंदी के विरुद्द आन्दोलन, पंजाबी भाषी लोगो द्वारा अपने लिए एक अलग राज्य की माँग करना तथा असम एवं मिजोरम की सम्सयाएँ इत्यादि | यहां पर यहाँ बात उल्लेखनीय है, की यद्दपि भारत के कई क्षेत्रों में काफी समय से कुछ अलगावादी आन्दोलन चल रहें है, परन्तु सभी आन्दोलन अलगाववादी आन्दोलन नहीं होते | अर्थात कुछ क्षेत्रीय आन्दोलन भारत से अलग नहीं होना चाहते, बल्कि अपने लिए अलग राज्य की माँग करते है, जैसे- झारखण्ड मुक्ति मोर्चा का आन्दोलन, छतीसगढ़ के आदिवासियों द्वारा चलाया गया आन्दोलन तथा तेलंगाना प्रजा समिति द्वारा चलाया गया आन्दोलन इत्यादि |